असीम राज पाण्डेय, रतलाम। शहर में इन दिनों द्वारका रेसिडेंसी का मामला खूब चर्चा में है। चार साल पहले एक बिल्डर ने बिना सरकार की इजाजत के करीब 15 हजार स्क्वेयर फीट सरकारी जमीन पर सीसी रोड (कांक्रीट की सड़क) बना दी थी। जब मामला खुला, तो प्रशासन की नींद टूटी और फौरन मौके पर कार्रवाई करने पहुंच गया। लोगों को उस वक्त लगा कि अब तो कुछ बड़ा होगा। लेकिन अब जो खबरें आ रही हैं, उनसे साफ लग रहा है कि ये सब सिर्फ दिखावा था। कोर्ट में सरकार केस हार गई और जिम्मेदार अधिकारी अब तक ऊपरी अदालत तक भी नहीं पहुंचे। लोग पूछ रहे हैं जब जमीन सरकार की थी, तो इसे बचाने में सरकार इतनी ढीली क्यों पड़ गई? हाल ही में ग्वालियर हाईकोर्ट ने भी सरकारी जमीनों पर हो रहे कब्जे को लेकर चिंता जताई थी। ये अंदर की बात है… कि रतलाम के इस केस को देखकर लगता है कि कुछ अफसरों और नेताओं ने मामले को गोलमाल करके ठंडे बस्ते में डाल दिया। अब देखना ये है कि सरकार खुद पर उठते सवालों का क्या जवाब देती है।

फरसे पर माननीय और माननीया के पति उलझे
नगर सरकार की मीटिंग में इस बार कुछ अलग ही माहौल देखने को मिला। वार्षिक बजट पास करना था, पर मीटिंग से पहले ही नगर सरकार के चैंबर में जबरदस्त ड्रामा हो गया। हुआ यूं कि माननीया के पति (जो खुद को परशुराम जी का वंशज बताते हैं) चैंबर में पहुंचे और कहते हैं “फरसे को लेकर जो काम हमने किया है, उसका श्रेय हमें मिलना चाहिए।” तभी चैंबर में बैठे एक और माननीय (स्वास्थ्य मंत्री जी) बोले “श्रेेय सबका है, अकेले किसी का नहीं।” बस फिर क्या था, दोनों में बहस शुरू हो गई और बात गाली-गलौच से होते हुए हाथापाई तक पहुंच गई। फरसा तो प्रतीक था, पर लड़ाई असल में अहम की थी। असल दिक्कत ये है कि अब पार्षदों के रिश्तेदार खुद को पार्टी का बॉस समझने लगे हैं। कोई किसी वार्ड माननीया का पति है, कोई ससुर तो कोई देवर, और कोई खुद को भविष्य का विधायक मानकर घूमता है। इन रिश्तेदारों के बीच की राजनीति ने नगर सरकार को मजाक बना दिया है। ये अंदर की बात है… कि फूलछाप संगठन से लेकर निगम के गलियारों में चर्चा है कि अभी इन्हें वार्ड के प्रतिनिधत्व में इतना अहम है, अगर शहर और प्रदेश की जिम्मेदारी सौंप दे तो यह आम जनता को जीने भी नहीं दे।
पोस्टर वाले नेताजी बनाम वरिष्ठ नेताजी का झगड़ा पहुंचा थाने
पिछले हफ्ते फूलछाप पार्टी में जबरदस्त हंगामा देखने को मिला। पार्टी के एक पोस्टर वाले नेताजी (जो अपने निवास गली पर मुस्कराते हुए दिखते हैं) और एक वरिष्ठ नेता के बेटे के बीच जमकर झगड़ा हुआ। वरिष्ठ नेता ने बेटे की ओर से शिकायत दर्ज कराई और मामला थाने तक जा पहुंचा। शुरू में दोनों पक्षों को मनाने की बहुत कोशिश हुई, लेकिन जब बात नहीं बनी, तो थाने में एफआईआर की नौटंकी शुरू हो गई। पोस्टर वाले नेताजी ने अपने पक्ष में जातीय कार्ड खेला और थाने में खड़े होकर जोरदार आवेदन दिया। आखिरकार पुलिस ने भी दबाव में आकर नेताजी की बात मान ली और एफआईआर उनके हाथ में सौंप दी। अब बात ये है कि जब नेता खुद अपनी लड़ाई में पुलिस और जाति को घसीटने लगें, तो आम जनता का भरोसा टूटता है। ये अंदर की बात है… कि पार्टी के गलियारों में ये मामला इतना फैला कि बड़े-बड़े नेता भी सोच में पड़ गए नेता बनना आसान है, पर पोस्टर से आगे सोच पाना मुश्किल…!